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झारखंड स्थापना दिवस पर खास : रांची के मेन रोड में हाथी पर सवार जयपाल सिंह मुंडा की वो यादगार रैली

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 Zeb Akhtar

भारतीय इतिहास भले ही गवाही न देते हों लेकिन झारखंड के लोक, लोकगीत और लोककथाएं इस बात की गवाह हैं कि झारखंडियों ने जब भी कुछ ठाना है, उसे पूरा कर दिखाया है। अंतिम सांस तक उसके लिए लड़ाई लड़ी है। झारखंड की आदिवासी सोच इस बात की भी गवाह रही है कि यहां के लोगों ने जो भी किया सामूहिकता में किया। तिलका मांझी से लेकर बिरसा मुंडा तक की लड़ाई इसी सामूहिकता की सोच की लडाई है। और इसीलिए जब भी हम अलग झारखंड राज्य के संघर्षों की बात करते हैं, तो हमारे सामने झारखंड के इसी जुझारू विरासत की तस्वीर आ जाती है। झारखंड स्थापना दिवस पर द फॉलोअप  की इस खास पेशकश में हम आपको झारखंड के इसी जुझारू विरासत की कहानी सुनाने जा रहे हैं। झाऱखंड राज्य बनने की कहानी सुनाने जा रहे हैं। इसके योद्धाओं की कहानी सुनाने जा रहे हैं।  
इतना तो अब सब जानते होंगे कि अलग झारखंड राज्य ऐसे ही हमें नहीं मिल गया। किसी भी राजनीतिक लडाई की तरह यहां भी बलिदान औऱ संघर्ष है। जेल की काली कोठरियां और यातनाएं हैं। पुलिस की लाठियां और मुकदमे हैं। इनका जिक्र करने से पहले एक स्वाभाविक सवाल जहन में आता है, झारखंड के लिए पहली बार कब आवाज उठी। कहां से उठी, ये आवाज किसने उठाई। ये समरगाथा पिछली सदी के उस कालखंड से शुरू होती है जब अंग्रेजी शाषण उत्तर प्रदेश के बाद बिहार में पांव पसारने के लिए बेचैन हो रहा था।  

यू बढ़ा अंग्रेजों से असंतोष 
1854 में छोटानागपुर कमिश्नरी का गठन हो चुका था। इसके बाद यहां महाजन भी पहुंचने लगे। फिर शुरू हुआ शोषण का अंतहीन दौर। इससे संताल परेशान हो गए। इसी समय, पारसनाथ पहाड़ी के पास रहनेवाले मोरगो माझी नामक एक संताल राजा ने संतालों के लिए पहली बार एक अलग राज्य घोषित करने का प्रयास किया। लेकिन इस प्रयास को अंग्रेजी फौज ने कुचल दिया। इस समय तक आदिवासियों के लिए उनकी जमीन और लगान सबसे बड़ी समस्या बन चुकी थी। उनका मानना था कि जंगल को साफ कर उन्होंने जमीन तैयार की है और अंग्रेजों को उनकी जमीन पर दखल देने का कोई अधिकार नहीं है। वे अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठाने लगे। इससे अंग्रेजों को समझ में आ गया कि झारखंडियों से जबरन टैक्स वसूलना आसान नहीं है। जब भी वे टैक्स के लिए दबाव बनाते, आदिवासी छोटानागपुर की पहाड़ियों में शरण लेते। उस वक़्त जो टैक्स नहीं देता, उनके ऊपर जुल्म ढाये जाते, उनकी जमीनें छीन ली जाती, प्रतिबंध लगा दिया जाता। इसका नतीज ये हुआ कि असंतोष की छिटपुट आवाजें विद्रोह का आकार लेने लगीं। 

अधिकारिक हुंकार की प्रतीक्षा
1769 का चुआड़ विद्रोह, 1810 का चेरो विद्रोह, 1819 का रुदु कोंता के नेतृत्व में मुंडा विद्रोह, 1831 का कोल विद्रोह, 1855 का सिद्धकान्हू, चांद-भैरव का संताल विद्रोह, इसी आक्रोश और असंतोष की कहानियां हैं। लेकिन कौन जानता था कि अंग्रेजों के खिलाफ हुए ये विद्रोह अलग झारखंड के लिए जमीन तैयार कर रहे थे। अलग झारखंड राज्य की बुनियाद और बैकग्राउंड तैयार कर रहे थे। कमी थी तो बस एक अधिकारिक हुंकार की। एक सफल योजना और रणनीति की। झारखंड की धरती शायद इसका इंतजार कर रही थी। 

जब एक छात्र ने हजारीबाग में उठाई अलग राज्य की मांग
कुल मिलाकर ये कि झारखंडी धरती के गर्भ में बदलाव का शिशु करवटें ले रहा था। इसकी अगली आहट सुनाई पड़ी 1912 में। जब पहली बार, सार्वजनिक तौर पर अलग झारखंड का प्रस्ताव सेंट कोलंबिया कॉलेज, हज़ारीबाग के एक छात्र ने रखा। तब तक आदिवासी संगठन उन्नति समाज भी अस्तित्व में आ चुका था। इसकी बैठकों में अलग राज्य की मांग पर विचार होना शुरू हो गया था। समय का पहिया घूमता गया और 1937 में बिहार विधानसभा के चुनाव के बाद कांग्रेस की सरकार बनी। लेकिन मंत्रिमंडल में छोटानागपुर से किसी भी नेता को शामिल नहीं किया गया। इसके विरोध में 30-31 मई 1938 को रांची में उन्नति समाज, कैथोलिक सभा और किसान सभा की एक बैठक हुई। इस बैठक में अखिल भारतीय आदिवासी महासभा का गठन किया गया। इस महासभा का उद्देश्य ही छोटानागपुर और संताल परगना को मिलाकर एक अलग झारखंड राज्य का गठन करना था। थियोडोर सुरीन इस महासभा के अध्यक्ष और पाल दयाल सचिव चुने गए। 

आदिवासी महासभा बनने की कहानी 

झारखंड अलग राज्य की लडाई को धार देने के लिए ही 1949 में ‘आदिवासी महासभा’का नाम बदलकर ‘झारखंड पार्टी’कर दिया गया। विलायत से आये हॉकी प्लेयर औऱ आईसीएस जयपाल सिंह मुंडा इसके पहले अध्यक्ष बने। सच पूछिये तो झारखंड पार्टी के गठन और इस लड़ाई में जयपाल सिंह मुंडा के कूदने के बाद ही अलग झारखंड राज्य की मांग को राष्ट्रीय पहचान मिली। जयपाल सिंह मुंडा की उस रैली को लोग आज भी याद करते हैं, जब उन्होंने हाथी पर सवार होकर रांची के मेन रोड में रैली निकाली थी। इस रैली में एक लाख से भी अधिक लोग शामिल हुए थे। ये एक न भूलने वाला क्षण था। अपने सबसे बड़े नेता मरांग गोमके को सुनने के लिए दूर-दूर से पैदल चलकर आदिवासी समुदाय लोग रांची पहुंचे थे। बहरहाल, झारखंड पार्टी ने बिहार, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और ओडिशा के कुल 28 जिलों को मिलाकर अलग झारखंड राज्य का मैप तैयार किया। 
 

झारखंड पार्टी का कांग्रेस में विलय 
आजादी मिलने के बाद जब 1952 में पहली बार बिहार विधानसभा का चुनाव हुआ, तो झारखंड पार्टी 32 सीट जीतकर सबसे बड़े विपक्षी दल के रूप में सामने आई। यह जयपाल सिंह का ही करिश्मा था। इसी से यहां के लोगों में विश्वास जगा कि अब झारखंड राज्य बन जाएगा। लेकिन इंदिरा गांधी की कूटनीति से अनजान जयपाल सिंह मुंडा ने झारखंड पार्टी का विलय कांग्रेस में कर दिया। इससे आधी सदी से चल रही अलग झारखंड राज्य की लडाई आखिरी सांसें लेने लगी। जिसे कालांतर में जीवन दान दिया शिबू सोरेन, बिनोद बिहारी महतो और एनई होरो जैसे वैचारिक धार और रणनीति से लैस नेताओं ने। 1963 में झारखंड पार्टी के कांग्रेस में विलय बाद झारखंड आंदोलन की लौ को जलाए रखने का जिम्मा एनई होरो ने उठाया। एनई होरो ने झारखंड पार्टी को दोबारा जिंदा किया। इसमें नया जोश भरा। और एक बार फिर से झारखंड पार्टी अलग राज्य के आंदोलन का पर्याय बन गयी। होरो राजनीति में वो मोटी लकीर थे, जिसके इर्द-गिर्द क्या युवा, क्या बुजुर्ग सभी आयु और वर्ग के लोग घूमा करते थे। 

एनई होरो और कार्तिक महतो का योगदान 
बहरहाल, जयपाल सिंह मुंडा और एनई होरो के समय से ये धारणा बनने लगी थी कि झारखंड राज्य की मांग सिर्फ आदिवासियों की मांग है। इस धारणा को बाद के दिनों में बिनोद बिहारी महतो, शिबू सोरेन और एके राय की तिकड़ी ने तोड़ा, जब धनबाद के ऐतिहासिक गोल्फ मैदान में 4 फरवरी 1973 के दिन झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन हुआ। इसके बाद अलग झारखंड राज्य की लडाई में कुर्मी समाज के साथ दूसरे समुदायों के लोग भी तेजी से जुड़ते चले गये।    
झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना के बाद झारखंड आंदोलन को सड़क से लेकर संसद तक मजबूती मिली। इस बीच आंदोलन को जिन और लोगों ने सींचने और लहू देने का काम किया उनमें एक बड़ा नाम कार्तिक महतो का आता है। जिन्होंने आंदोलन से छात्रों को जोड़ने के लिए आजसू का गठन किया। लेकिन दुर्भाग्य कि 8 अगस्त, 1987 को महज 37 साल की उम्र में उनकी हत्या कर दी गयी। हत्या के समय वे झारखंड मुक्ति मोर्चा के केंद्रीय अध्यक्ष थे। 1980 में वे झारखंड मुक्ति मोर्चा से जुड़े। खुद शिबू सोरेन, निर्मल महतो से इतने प्रभावित थे कि पार्टी से जुड़ने के 3 साल के अंदर ही उन्हें मोर्चा का केंद्रीय अध्यक्ष बनाया और खुद महासचिव बने। 

बिरसा के जन्मदिन पर झारखंड का तोहफा 
इसके बाद अलग राज्य का आंदोलन बागुन सुंब्रई, लाल रणविजय सिंह, डॉ रामदयाल मुंडा और बीपी केशरी की कमदताल के साथ पलता बढ़ता चला गया। अंतत: 15 नवंबर 2000 को अलग झारखंड राज्य बना। 15 नवंबर को ही महान बिरसा मुंडा का जन्मदिन भी मनाया जाता है। तो झारखंड अलग राज्य के भी जन्म का इससे और बेहतर और पावन अवसर क्या हो सकता था। बहरहाल, झारखंड स्थापना दिवस पर आप सभी को जोहार!